Birsa Munda Jayanti 2023 : जानिए कौन थे भगवान बिरसा मुंडा

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Birsa Munda Jayanti 2023

बिरसा मुंडा जयंती 2023 (Birsa Munda Jayanti 2023) :  महान स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी नेता बिरसा मुंडा जिन्हें 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशक्तत विद्रोह के लिए याद किया जाता है। बिरसा मुंडा आदिवासी अधिकारों के अद्वितीय नायक थे, जिनकी बहादुरी और हिम्मत से अंग्रेज भी दंग रह गए थे। छोटा नागपुर पठार के इलाके में बिरसा मुंडा ने आदिवासियों की आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया। बिरसा मुंडा की गिनती ना सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में होती है, बल्कि वे एक बड़े समाज सुधारक भी थे। भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में बिरसा मुंडा को अहम स्थान दिया गया है।आदिवासियों के महानायक बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के आदिवासी दम्पति सुगना और करमी के घर (उलीहातू गांव-जिला खूंटी ) में हुआ था। भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया।

भगवान बिरसा मुंडा ने किसका विरोध किया?
अंग्रेजी शासन लागू होने के बाद झारखंड के आदिवासियों को अपनी स्वतंत्र और स्वायत्ता पर खतरा महसूस होने लगा। अंग्रेजों ने जब आदिवासियों से उनके जल, जंगल, जमीन को छीनने की कोशिश की तो उलगुलान यानी आंदोलन हुआ। इस उलगुलान का ऐलान करने वाले बिरसा मुंडा ही थे। बिरसा मुंडा ने ‘अंग्रेजों अपनो देश वापस जाओ’ का नारा देकर उलगुलान का ठीक वैसे ही नेतृत्व किया जैसे बाद में स्वतंत्रता की लड़ाई के दूसरे नायकों ने इसी तरह के नारे देकर देशवासियों के भीतर जोश पैदा किया।
सरदारी आंदोलन आंदोलन कब हुआ ?
1858-94 का सरदारी आंदोलन बिरसा मुंडा के उलगुलान का आधार बना, जो भूमिज-मुंडा सरदारों के नेतृत्व में लड़ा गया था। 1894 में सरदारी लड़ाई मजबूत नेतृत्व की कमी के कारण सफल नहीं हुआ, जिसके बाद आदिवासी बिरसा मुंडा के विद्रोह में शामिल हो गए। 1 अक्टूबर 1894 को बिरसा मुंडा (Birsa Munda) ने सभी मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजों से लगान  माफी के लिये आन्दोलन किया, जिसे ‘मुंडा विद्रोह’ या ‘उलगुलान’ कहा जाता है।

जानिए अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को कैसे मारा ?

बिरसा मुंडा को भगवान बिरसा मुंडा क्यों कहते हैं ?

बिरसा मुंडा को धरती आबा क्यों कहते हैं ?
1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और जिससे उन्होंने अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें इलाके के लोग “धरती आबा”के नाम से पुकारा और उनकी पूजा करने लगे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। बिरसा के उलगुलान की विशेषता थी कि बिरसा मुंडा (Birsa Munda Jayanti 2023) से पहले जितने भी विद्रोह हुए वह जमीन बचाने के लिए हुए। लेकिन बिरसा मुंडा ने तीन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उलगुलान किया। पहला, वह जल, जंगल, जमीन जैसे संसाधनों की रक्षा करना चाहते थे। दूसरा, नारी की रक्षा और सुरक्षा तथा तीसरा, वे अपने समाज की संस्कृति की मर्यादा को बनाये रखना चाहते थे।
अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की शुरूआत कब हुई ?
ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेज आदिवासियों पर जुल्म किया करते थे। अंग्रेज न सिर्फ उनकी संस्कृति को नष्ट कर रहे थे, बल्कि उनके साथ बुरा बर्ताव भी किया करते थे। आदिवासियों पर मालगुजारी को बोझ लाद दिया था। आदिवासी महाजनों के चंगुल में फंसते जा रहे थे। उनके खेत-खलिहान पर अंग्रेजों का कब्जा होता जा रहा था। बिरसा मुंडा को यह देखकर बुरा लगा। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंक दिया। हालांकि यह आंदोलन पहले ही शुरू हो गया था, बिरसा मुंडा ने इस आंदोलन को ऊंचाई प्रदान की।
मुंडा विद्रोह में क्या हुआ था?
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे। 1897 में बिरसा और उनके चार सौ साथियों ने तीर कमानों से खूंटी थाने पर धावा बोला। जंगलों में तीर और कमान उनके सबसे कारगर हथियार रहे । 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेजी सेनाओं से हुई जिसमें अंग्रेजी सेना हार गई। बाद में उस इलाके से बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारियां हुई। जनवरी 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत से बच्चे और महिलाएं भी मारे गये थे। उस जगह बिरसा (Birsa Munda) अपनी जनसभा को संबोधित कर रहे थे। दरअसल बिरसा के जेल से आने के बाद अंग्रेजी सरकार ने समझ लिया कि बिरसा उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
मुंडा राज की स्थापना क्यों करना चाहते थे भगवन बिरसा ?
आंदोलन के रूप में ‘उलगुलान’ या ‘ ग्रेट कोलाहल’ कहा जाने लगा, जिसका उद्देश्य अंग्रेजों को भगाकर मुंडा राज की स्थापना करना था।बिरसा मुंडा ने लोगों को जगाने के लिए पारंपरिक प्रतीकों और भाषा का इस्तेमाल किया, उनसे “रावण” (दिकु / बाहरी और यूरोपीय) को नष्ट करने और उनके नेतृत्व में एक राज्य स्थापित करने का आग्रह किया।बिरसा के अनुयायियों ने दीकू और यूरोपीय शक्ति के प्रतीकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया । उन्होंने पुलिस स्टेशनों और चर्चों पर हमला किया, और साहूकारों और जमींदारों की संपत्ति पर छापा मारा। उन्होंने बिरसा राज के प्रतीक के रूप में सफेद झंडा उठाया ।
बिरसा मुंडा का पारिवारिक जीवन कैसा था?
बिरसा मुंडा (Birsa Munda) ने  हिंदू और ईसाई धर्म दोनों की शिक्षा ली थी। बिरसा को 25 साल में ही आदिवासियों के सामाजिक और आर्थिक शोषण का काफी ज्ञान हो गया था। बिरसा मुंडा का जीवन सिर्फ 25 साल का रहा। उस समय के भगत सिंह बिरसा ही थे जिनसे सत्ता सबसे ज्यादा घबराती थी। बिरसा ने अपने छोटे से जीवन में अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों को एकत्रित कर विद्रोह का सूत्र तैयार कर लिया और उन्हें आवाज उठाने की राजनीति सिखाई। बिरसा हमेशा अपनी संस्कृति और धर्म को बचाना और बरकरार रखना चाहते थे। उन्होंने मुंडा परंपरा और सामाजिक संरचना को नया जीवन दिया। दरअसल यह स्थानीयता की सुरक्षा की राजनीतिक लड़ाई का एक रूप था। इसीलिए बिरसा मुंडा को न केवल झारखंड में बल्कि समाज और राष्ट्र के नायक के रूप में देखा जाता है।
कैसे बने बिरसा डेविड से बिरसा दाउद ?
बिरसा के  बड़े चाचा का नाम कानू पौलुस था। वह ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके थे। इसके बाद उनके पिता भी ईसाई धर्म प्रचारक बन गए थे। उनके जन्म के बाद उलिहतु गांव से उनका परिवार कुरुमब्दा गांव आकर बस गया था। परिवार की गरीबी के कारण बिरसा मुंडा अपने मामा के गांव चले गए। गांव का नाम था- अयुभातु। यहां बिरसा मुंडा ने दो साल तक शिक्षा ग्रहण की। स्कूल के संचालक जयपाल नाग के कहने पर बिरसा मुंडा ने जर्मन मिशन स्कूल में दाखिला ले लिया। लेकिन ईसाई स्कूल होने के कारण उन्हें ईसाई धर्म अपनाना पड़ा। इसके बाद बिरसा मुंडा का नाम बिरसा डेविड हो गया। बाद में यह नाम बिरसा दाउद हो गया। सन् 1886 से 1890 तक का समय बिरसा ने जर्मन मिशन में बिताया, परन्तु इन स्कूलों में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो उपहास किया जाता था, वह बिरसा को सहन नहीं हुआ। इस पर उन्होंने भी पादरियों का और उनके धर्म का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया, जिससे उनका उस स्कूल में बने रहना कठिन हो गया।
बिरसा मुंडा को अपनी भूमि, अपनी संस्कृति से गहरा लगाव था। उन दिनों मुंडा सरदारों से अंग्रेजों द्वारा छीनी गई भूमि को लेकर  वह  दु:खी थे ।वह  हमेशा प्रखरता के साथ आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे। पादरी डॉ नोट्रेट ने वनवासियों से कह रखा था कि यदि वे लोग ईसाई बने रहे और उनका अनुदेशों का पालन करते रहे तो मुंडा सरदारों की छिनी हुई भूमि को वापस करा देंगे। लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया, बल्कि ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा। उनकी बगावत को देखते हुए ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें स्कूल से निकाल दिया, फलत: 1890 में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए।
भगवान बिरसा के धार्मिक गुरु  कौन थे ?
शांति और आध्यात्म की तलाश में घूमते नौजवान बिरसा मुंडा की मुलाकात 1891 में बंदगांव के स्थानीय जमींदार जगमोहन सिंह के मुंशी आनंद  पांडे  से हुई। बातचीत के दौरान आनंद पंडा से बिरसा मुंडा काफी प्रभावित हुए। आनंद ने उन्हें वैष्णव धर्म की शिक्षा दी। धार्मिक ग्रंथों के बारे में जानकारियां दी। बिरसा ने आनंद को अपना धार्मिक गुरु मान लिया और तीन वर्षों तक धर्म और ग्रंथों की शिक्षा ली। इस दौरान साधु-संतों से भी मेल-जोल बढ़ गई। जिनसे उन्हें हिन्दू धर्म का ज्ञान मिला। आगे का समय उन्होंने पाटपुर, बंदगांव तथा गोरबेरा में आनन्द पांडे तथा उनके भाई सुखराम पाण्डे की छत्रछाया में बिताया जिन्होंने अपने प्रवचनों से उन्हें शाकाहारी बना दिया और यज्ञोपवीत धारण कराया। धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ उन्होंने रामायण, महाभारत, हितोपदेश, गीता आदि धर्मग्रंथों का भी अध्ययन किया| इसके बाद वे सत्यकी खोज के लिए एकांत स्थान पर कठोर साधना करने लगे। यहीं से बिरसा मुंडा समाज सुधारक के रास्ते पर चल पड़े जो आगे जाकर अपने समाज के लिए ‘भगवान’ बन गए।
बिरसा को भगवान का क्यों कहते हैं ?
एक महात्मा और सुधारक के रूप में बिरसा मुंडा की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। इसी समय 1884 में छोटा नागपुर क्षेत्र में मानसून ना आने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैल गयी जिसमें बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की और अपनी इस सेवाभावना से वो घर घर जाना पहचाना नाम हो गए। यह कहा जाता है कि 1895 में कुछ ऐसी अलौकिक घटनाएँ भी घटीं, जिनके कारण लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे और उनमें यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। अब तक जन-सामान्य का बिरसा में काफ़ी दृढ़ विश्वास हो चुका था, इससे बिरसा को अपने प्रभाव में वृद्धि करने में मदद मिली। लोग उनकी बातें सुनने के लिए बड़ी संख्या में एकत्र होने लगे।
पूर्वजों की श्रेष्ठ परंपरा को अपनाने का दिया संदेश
बिरसा ने हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रचार करना शुरू कर दिया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले वनवासी बंधुओं को उन्होंने समझाया कि ईसाई धर्म हमारा अपना धर्म नहीं है और यह अंग्रेजों का धर्म है। चूँकि वे हमारे देश पर शासन कर रहे हैं, इसलिए वे हमारे हिन्दू धर्म का विरोध और ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे हैं। ईसाई धर्म अपनाने से हम अपने पूर्वजों की श्रेष्ठ परंपरा से विमुख होते जा रहे हैं, इसलिए अब हमें जागना चाहिए। उनके विचारों से प्रभावित होकर बहुत से वनवासी उनके पास आने लगे और उनके शिष्य बनने लगे। बिरसा ने पुराने अंधविश्वासों का खंडन किया और लोगों को हिंसा एवं मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी। उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या तेजी से घटने लगी और जो मुंडा ईसाई बन गये थे, वे फिर से अपने पुराने धर्म में लौटने लगे।
बिरसाइत धर्म की शुरुआत की 
‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन’ किताब के लेखक और प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे कुमार सुरेश सिंह लिखते हैं कि 1894 में वो उस आंदोलन में जुड़े जिसमें आदिवासियों की जमीन और जंगलों के अधिकारों की मांग की जा रही थी। इस दौरान उन्हें महसूस हुआ कि इस आंदोलन को न तो आदिवासी और न ही ईसाई धर्म के लोग प्राथमिकता दे रहे हैं। यहीं से उन्होंने एक नए धर्म की शुरुआत की और नाम रखा बिरसाइत. इसे मानने वालों को बिरसाइत कहा गया। 1895 में उन्होंने अपने धर्म के प्रचार की जिम्मेदारी अपने 12 शिष्यों को दी। मुंडा और उरांव समुदाय के सदस्य बिरसैत संप्रदाय में शामिल हो गए और यह ब्रिटिश धर्मांतरण गतिविधियों के लिए एक चुनौती बन गया।इसके अलावा, उन्होंने मुंडाओं से आग्रह किया कि वे शराब पीना छोड़ दें, अपने गाँव को साफ करें और जादू टोना और जादू-टोना में विश्वास करना बंद कर दें।
समाजसेवी भी थे बिरसा मुंडा  
बिरसा ने आदिवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया, शिक्षा का महत्व समझाया, सहयोग और सरकार का रास्ता दिखाया। सामाजिक स्तर पर आदिवासियों के इस जागरण से जमींदार-जागीरदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन तो बौखलाया ही, पाखंडी झाड़-फूंक करने वालों की दुकानदारी भी ठप हो गई। ये सब बिरसा मुंडा के खिलाफ हो गए। उन्होंने बिरसा के खिलाफ साजिश रचना शुरू कर दी । बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे। बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली और उनके कुशल नेतृत्व में आदिवासियों ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया, जिसके परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रूक गया। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना जगा दी थी।परिणाम स्वरुप  आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए। बिरसा वनवासियों को प्रवचन देते और अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा देते । इस प्रकार उन्होंने वनवासियों का बड़ा और सशक्त संगठन खड़ा कर लिया, जिसके बल पर उन्होंने 1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजों से लगान माफी के लिये आंदोलन किया और लोगों को किसानों का शोषण करने वाले ज़मींदारों के विरुद्ध संघर्ष की भी प्रेरणा दी।
बिरसा की मृत्यु कब और कैसे हुई थी?
बिरसा के बढ़ते  प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर अंग्रेज मिशनरी चिंतित हो उठे क्योंकि उन्हें डर था कि बिरसा द्वारा बनाया गया वनवासियों का यह संगठन आगे चलकर मिशनरियों और अंग्रेजी शासन के लिए संकट बन सकता है। उन्हें घेरने की हर संभव कोशिश भी बेकार साबित हो रही थी। अंग्रेजी सरकार ने यह रणनीति बनाई कि कई तरह के अभावों से जुझ रहे आदिवासियों के बीच उस व्यक्ति की खोज की जाए जो कि सबसे कमजोर हो और जो उनके लालच में आ सकें। 4 फरवरी 1900 को जराई केला के रोगतो गांव के सात मुंडाओं ने 500 रुपये इनाम के लालच में सोते हुए बिरसा को खाट सहित बांधकर बंदगांव लाकर अंग्रेजों को सौंप दिया। अदालत में बिरसा पर झूठा मुकदमा चला और उसके बाद उन्हें जेल में डाल दिया गया। वहां उन्हें अंग्रेजों ने धीमा जहर दिया, जिससे 9 जून 1900 को बिरसा की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने यह संदेश देने की कोशिश की उनकी मृत्यु स्वभाविक हुई, क्योंकि बिरसा की मौत की बजाय हत्या की खबर फैलती तो आदिवासियों के गुस्से को रोक पाना असंभव हो जाता। बिरसा मुण्डा (Birsa Munda) की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है।

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